ब्रह्मणस्पति सूक्त

वैदिक देवता विघ्नेश गणपति ‘ब्रह्मणस्पति’ भी कहलाते हैं।ब्रह्मणस्पति’ के रूप में वे ही सर्वज्ञाननिधि तथा समस्त वाङ्मय के अधिष्ठाता है। मुद्गलपुराण (८।४९।१७) में भी स्पष्ट लिखा है- सिद्धिबुद्धिपति वन्दे ब्रह्मणस्पतिसंज्ञितम् । माङ्गल्येशं सर्वपूज्यं विघ्नानां नायकं परम् ।। अर्थात् समस्त मंगलों के स्वामी, सभी के परम पूज्य, सकल विघ्नो के परम नायक, ‘ब्रह्मणस्पति’ नाम से प्रसिद्ध सिद्धि-बुद्धि के पति (गणपति) की मैं वन्दना करता हूँ। ब्रह्मणस्पति के अनेक सूक्त प्राप्त होते हैं। ऋग्वेद के प्रथम मण्डल का ४० वाँ सूक्त ‘ब्रह्मणस्पति सूक्त’ कहलाता है, इसके ऋषि ‘कण्व घोर’ हैं।

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Last updated on : Thu, 30-Mar-2023 Hindi-gujarati

उत्तिष्ठ ब्रह्मणस्पते देवयन्तस्त्वेमहे।

उप प्र यन्तु मरुत सुदानव इन्द्र प्राशूर्भवा सचा ॥१॥

त्वामिद्धि सहसस्पुत्र मर्त्य उपब्रूते धने हिते।

सुवीर्य मरुत आ स्वश्व्यं दधीत यो व आचके ॥२॥

प्रैतु ब्रह्मणस्पतिः प्र देव्येतु सूनृता।

अच्छा वीरं नर्यं पङ्क्तिराधसं देवा यज्ञं नयन्तु नः ॥३॥

यो वाघते ददाति सूनरं वसु स धत्ते अक्षिति श्रवः।

तस्मा इळां सुवीरामा यजामहे सुप्रतूर्तिमनेहसम् ॥४॥

प्र नूनं ब्रह्मणस्पतिर्मन्त्रं वदत्युक्थ्यम्।

यस्मिन्निन्द्रो वरुणो मित्रो अर्यमा देवा ओकांसि चक्रिरे ॥५॥

तमिद् वोचेमा विदथेषु शंभुवं मन्त्रं देवा अनेहसम्।

इमां च वाचं प्रतिहर्यथा नरो विश्वेद् वामा वो अश्नवत् ॥६॥

को देवयन्तमश्नवज् जनं को वृक्तबर्हिषम।

प्रप्र दाश्वान् पस्त्याभिरस्थिताऽन्तर्वावत् क्षयं दधे ॥७॥

उप क्षत्रं पृञ्चीत हन्ति राजभिर्भये चित् सुक्षितिं दधे।

नास्य वर्ता न तरुता महाधने नार्भ अस्ति वज्रिणः ॥८॥ [ऋक् ११४०]